अनुबन्ध-चतुष्टय
तत्र अनुबन्धो नाम अधिकारिविषयसम्बन्धप्रयोजनानि
॥५॥
अन्वयः – तत्र अनुबन्धः नाम अधिकारि-विषय-सम्बन्ध-प्रयोजनानि।
The preliminary questions of Vedanta are the determination of the competency of the student, the subject-matter, its connection with the book and the necessity for its study.
अन्वयार्थः - (तत्र) वहां - पिछले श्लोक के सन्दर्भ में - (अनुबन्धः)
अनुबन्ध (नाम) कहते हैं (अधिकारि) वेदान्त पढ़ने का अधिकारी, (विषय) ग्रन्थ में प्रतिपाद्य
विषय, (सम्बन्ध) प्रतिपाद्य विषय के साथ प्रतिपादक ग्रन्थ का बोध्य-बोधक सम्बन्ध, तथा
अध्ययन का (प्रयोजन) प्रयोजन - इन चारों को।
अब इन चारों का व्यख्यान करेंगें
अधिकारी
अन्वयः – अधिकारी तु विधिवद्-अधीत-वेद-वेदाङ्गत्वेन
आपाततः अधिगत-अखिल-वेदार्थः अस्मिन् जन्मनि जन्मान्तरे वा काम्य-निषिद्ध-वर्जन-पुरःसरं
नित्य-नैमित्तिक-प्रायश्चित्त-उपासना-अनुष्ठानेन निर्गत-अखिल-कल्मषतया नितान्त-निर्मल-स्वान्तः
साधन-चतुष्टय-सम्पन्नः प्रमाता ।
The competent student is an aspirant who, by studying in accordance with the prescribed method the Vedas and the Vedangas (the books auxiliary to the Vedas), has ordained a general comprehension of the entire Vedas; who, being absolved from all sins in this or in a previous life by the avoidance of the actions known as kamya (rites performed with a view to attaining a desired object) and Nisiddha (those forbidden in the scriptures) and by the performance of actions called Nitya (daily obligatory rites) and Naimittika (obligatory on special occasions) as well as by penance and devotion, has become entirely pure in mind, and who has adopted the four Sadhanas or means to the attainment of spiritual knowledge.
अन्वयार्थः - (अधिकारी तु) अधिकारी वह है जिसको, (विधिवद्-अधीत-वेद-वेदाङ्गत्वेन
आपाततः) विधिवत वेद-वेदांगों का अध्ययन करने के द्वारा (अधिगत-अखिल-वेदार्थः) समस्त
वेदार्थ प्राप्त हो गया है (अस्मिन् जन्मनि) इस जन्म में (जन्मान्तरे वा) अन्यथा किसी
और जन्म में। जिसनें (काम्य-निषिद्ध-वर्जन-पुरःसरं) काम्य और निषिद्ध कर्मों का त्याग
कर दिया है और फिर (नित्य-नैमित्तिक-प्रायश्चित्त-उपासना) नित्य नैमित्तिक प्रायश्चित्त
तथा उपासना कर्मों के (अनुष्ठानेन) अनुष्ठान के द्वारा (निर्गत-निखिल-कल्मषतया) समस्त
पापों और मलिनता का नाश कर (नितान्त-निर्मल-स्वान्तः) अन्तःकरण को अत्यन्त निर्मल कर
लिया है। ऐसा (साधन-चतुष्टय-सम्पन्नः) साधन चतुष्टय सम्पन्न अधिकारी ही (प्रमाता) प्रमा
अर्थात यथार्थ ज्ञान को ग्रहण करने के योग्य प्रमाता है।
यहां पर बताया है कि वेदान्त का अध्ययन करने का अधिकारी
व्यक्ति वह है जिसका अन्तःकरण नितान्त निर्मल है और जो साधन चतुष्टय सम्पन्न है। अपि
च यह भी बताया है कि यह चित्त शुद्धि उस प्रमाता नें कैसे प्राप्त की है –
- सर्वप्रथम विधिपूर्वक ४ वेद और ६ वेदांगों का अध्ययन करना चाहिये – सर्वप्रथम उपनयन संस्कार के बाद किसी गुरु से इनका अध्ययन करना चाहिये। इस प्रकार करने से ही समस्त वेदों का अर्थ समझ में आयेगा। कहीं कहीं देखा जाता है किसी व्यक्ति नें विधिवत् वेदाध्ययन नहीं किया फिर भी उसे तत्त्वज्ञान प्राप्त हो गया। उनके विषय में कहते हैं कि उन्होंनें अपने पूर्व जन्म में उनका अध्ययन किया होगा और उसके फल स्वरूप इस जन्म में तत्त्वज्ञान प्राप्त हो गया।
- वेदाध्ययन से जो कर्म-विधान ज्ञात हुआ है उसका अनुसरण करते हुये काम्य और निषिद्ध कर्मों का त्याग कर देना चाहिये। नित्य और नैमित्तिक कर्म किये जा सकते हैं। पापों से मुक्ति पाने के लिये प्रायश्चित्त और चित्त शुद्धि के लिये उपासना की जाती है।
प्रस्तुत श्लोक में जिन कर्मों का नाम लिया है उनका
विस्तार आगे करते हैं -
काम्यानि - स्वर्गादीष्टसाधनानि ज्योतिष्टोमादीनि॥७॥
अन्वयः – काम्यानि – स्वर्ग-आदि-इष्ट-साधनानि ज्योतिष्टोम्
आदीनि।
The sacrifices such as Jyotistoma etc., which enable their performers to get the desired fruits such as living in heaven etc., are known as Kamya Karma.
अन्वयार्थः - (काम्यानि) काम्य कर्म वो हैं जो (स्वर्ग-आदि-इष्ट-साधनानि)
स्वर्ग आदि इष्ट पदार्थों को प्राप्त करने के साधन के रूप में किये जाते हैं – उदाहरण
स्वरूप – ज्योतिष्टोम्।
काम्य कर्म वह हैं जिनसे कोई भौतिक सुखदाई वस्तु
प्राप्त होती है। धन अथवा विषय भोग प्राप्त करने के लिये कर्म करना अथवा तो स्वर्ग
आदि की कामना से यज्ञ करना यह सब काम्य कर्म हैं और ब्रह्मज्ञान प्राप्ति में बाधक
है।
निषिद्धानि - नरकाद्यनिष्टसाधनानि ब्राह्मण-हननादीनि॥८॥
अन्वयः - निषिद्धानि – नरक आदि अनिष्ट साधनानि ब्राह्मण-हनन-आदीनि।
Actions such as the slaying of a Brahmin etc., which bring about undesired results as going to hell etc., are Nisiddha Karma or forbidden acts.
अन्वयार्थः - (निषिद्धानि) निषिद्ध कर्म वह हैं जो (नरक आदि अनिष्ट
साधनानि) नरक आदि अनिष्ट के साधन हैं जैसे (ब्राह्मण-हनन-आदीनि) ब्रह्मण हत्या आदि।
निषिद्ध कर्म सर्वथा त्याज्य हैं उनके कारण मनुष्य
इस लोक में दुःख पाता है और मरने के बाद नरक के कष्ट भोगता है। शास्त्र ऐसे कर्मों
का निषेध करते हैं।
नित्यानि - अकरणे प्रत्यवायसाधनानि सन्ध्यावन्दनादीनि॥९॥
अन्वयः - नित्यानि - अकरणे प्रत्यवाय-साधनानि सन्ध्यावन्दन-आदीनि।
Daily rites, such as Sandhyavandana etc., the non-performance of which causes harm, are called Nitya Karma.
अन्वयार्थः - (नित्यानि) नित्य कर्म वह होते हैं जिनके (अकरणे)
न करने से (प्रत्यवाय) दोष के (साधनानि) साधन हो जाते हैं; जैसे सन्ध्यावन्दन आदी।
नित्य कर्म से तात्पर्य है कर्तव्य कर्म। इनके न
करने से दोष लगता है और चित्त में मलिनता आती है। मन को शान्त और शुद्ध रखने के लिये
इन कर्मों को नित्य करते रहना अत्यन्तावश्यक है।
नैमित्तिकानि - पुत्रजन्माद्यनुबन्धीनि जातेष्ट्यादीनि॥१०॥
अन्वयः - नैमित्तिकानि – पुत्र-जन्म-अनुबन्धीनि जातेष्टि-आदीनि।
Jatesti sacrifices (which are performed subsequent to the birth of a son) etc., are called the Naimittika Karma or rites to be observed on special occasions.
अन्वयार्थः - (नैमित्तिकानि) नैमित्तिक कर्म वह होते हैं जो कोई
निमित्त या कारण उपस्थित होने पर किये जाते हैं जैसे (पुत्र-जन्म-अनुबन्धीनि) पुत्र
जन्म के समय पर विहित (जातेष्टि-आदीनि) जातकर्म आदि संस्कार।
नैमित्तिक कर्म भी कर्तव्य कर्म हैं पर यह नित्य
नहीं किये जाते हैं। यह किसी विशेष परिस्थिति या अवसर पर किये जाते हैं। जातेष्टि एक
ऐसा कर्म है पुत्र जन्म के अवसर पर किया जाता है। तैत्तिरीय संहिता (२.२.५.३) में इसका
आदेश मिलता है – “वैश्वानरं द्वादशकपालं निर्वपेत् पुत्र जाते।“
प्रायश्चित्तानि - पापक्षयसाधनानि चान्द्रायणादीनि॥११॥
अन्वयः - प्रायश्चित्तानि – पाप-क्षय-साधनानि चान्द्रायण-आदीनि।
Rites such as Chandrayana etc., which are instrumental in the expiation of sin, are Prayaschittas or penances.
अन्वयार्थः - (प्रायश्चित्तानि) प्रायश्चित्त कर्म उनको कहते हैं
जो कि (पाप-क्षय-साधनानि) पाप का क्षय करनें के साधन होते हैं – जैसे चान्द्रायण आदि
व्रत।
पाप कर्म के दूषित फल से बचने के लिये प्रायश्चित्त
किये जाते हैं। चान्द्रायण व्रत में चन्द्रमा के घटने के साथ भोजन नित्य थोड़ा थोड़ा
घटाया जाता है और चन्द्रमा के बढ़ने के साथ थोड़ा थोड़ा बढ़ाया जाता है। यह एक माह का व्रत
होता है।
उपासनानि - सगुणब्रह्मविषयमानसव्यापाररूपाणि शाण्डिल्यविद्यादीनि॥१२॥
अन्वयः - उपासनानि – सगुण-ब्रह्म-विषय-मानस-व्यापार-रूपाणि
शाण्डिल्य-विद्या-आदीनि।
Mental activities relating to the Saguna Brahman – such as are described in the Sandilya Vidya are Upasanas or devotions.
अन्वयार्थः - (उपासनानि) उपासना (सगुण-ब्रह्म-विषय) सगुण ब्रह्म
के विषय में (मानस-व्यापार-रूपाणि) मानस व्यापार या चिन्तन हैं, जैसे- शाण्डिल्य-विद्या-आदि।
सगुण ब्रह्म का चिन्तन उपासना है। उपासना तीन प्रकार
की होती है-
- कायिक – जैसे पञ्चोपचार, षोडशोपचार पूजनादि।
- वाचिक – जैसे स्तोत्र पाठ करना भजन करना आदि।
- मानसिक – जैसे जप और ध्यान करना।
यह चित्त को एकाग्र करने का सशक्त साधन है।
माया
की उपाधि धारण करने वाले ब्रह्म को सगुण ब्रह्म या ईश्वर कहते हैं।
शाण्डिल्य विद्या एक वैदिक उपासना है। छान्दोग्य
उपनिषद में इसका वर्णन है – “सर्वं खलु इदं ब्रह्म तज्जलानीति शान्तं उपासीत्” – (३.१४.१)
– यह सब जगत ब्रह्म ही है। जगत् की उत्पत्ति स्थिति और लय का वही कारण है। मन को शान्त
रखकर उसकी उपासना करनी चाहिये।
भगवान श्रीराम या श्रीकृष्ण की उपासना करना पौराणिक
उपासना है।
एतेषां नित्यादीनां बुद्धिशुद्धिः परं प्रयोजनमुपासनानां
तु चित्तैकाग्र्यं "तमेतमात्मानं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन"
(बृ उ ४ । ४ । २२) इत्यादि श्रुतेः "तपसा कल्मषं हन्ति" (मनु १२ – १०४) इत्यादि
स्मृतेश्च॥१३॥
अन्वयः – एतेषाम् नित्य आदीनाम् बुद्धिशुद्धिः परम्
प्रयोजनम् उपासनानाम् तु चित्त एकाग्र्यम् ‘तम् एतम् आत्मानमं वेद-अनुवचनेन ब्राह्मणा
विविदिषन्ति यज्ञेन’ इत्यादि श्रुतेः ‘तपसा कल्मषं हन्ति’ इत्यादि स्मृतेश्च।
Of these, Nitya and other works mainly serve the purpose of purifying the mind; but the Upasanas chiefly aim at the concentration of the mind, as in such Sruti passages, “Brahmanas seek to know this Self by the study of the Vedas, by sacrifice” (Brihadaranyaka-IV-4-22); as well as in such Smriti passages, “they destroy sins by practising austerities” (Manu 12.104)
अन्वयार्थः - (एतेषाम्) इनमें से (नित्य आदीनाम्) नित्य आदि कर्मों
का (परम् प्रयोजनम्) परम प्रयोजन (बुद्धिशुद्धिः) बुद्धि शुद्धि है। (उपासनानाम् तु)
और उपासना का परम प्रयोजन (चित्त एकाग्र्यम्) चित्त की एकाग्रता है। (तम् एतम् आत्मानमं)
इस आत्मा को जानने के लिये (वेद-अनुवचनेन) वेद वाक्यों के द्वारा (ब्राह्मणा) ब्राह्मण
(विविदिषन्ति) कामना करते हैं (यज्ञेन) यज्ञ
के द्वारा (इत्यादि श्रुतेः) इस प्रकार के श्रुति प्रमाण हैं। (‘तपसा कल्मषं हन्ति’)
तप के द्वारा पाप नष्ट होते हैं (इत्यादि स्मृतेश्च) इस प्रकार स्मृति प्रमाण हैं।
आत्मज्ञान प्राप्ति के लिये चित्त शुद्ध और एकाग्र
होना चाहिये। पहले नित्य नैमित्तिक और प्रायश्चित्त कर्मों के द्वारा चित्त शुद्ध करना
चाहिये उसके बाद क्रमशः स्थूल से सूक्ष्म स्तर की उपासनायें करते हुये अपने मन को एकाग्र
करना चाहिये।
नित्यनैमित्तिकयोः उपासनानां त्ववान्तरफलं पितृलोकसत्यलोकप्राप्तिः
"कर्मणा पितृलोकः विद्यया देवलोकः" (बृ उ १- ५- १६) इत्यादिश्रुतेः॥१४॥
अन्वयः – नित्य-नैमित्तिकयोः उपासनानां तु अवान्तर
फलम् पितृलोक-सत्यलोक-प्राप्तिः ‘कर्मणा पितृलोकः विद्यया देवलोकः’ इत्यादि श्रुतेः।
The secondary results of the Nitya and the Naimittika Karma and of the Upasanas are the attainment of the Pitruloka and the Satyaloka respectively; as in the Sruti passages, “By sacrifice the world of the Fathers, by knowledge (Upasana) the world of the Devas (is gained)"”(Br. Up.I.5.16)
अन्वयार्थः - (नित्य-नैमित्तिकयोः उपासनानां) नित्य आदि कर्म और
उपासना का (अवान्तर) दूसरा या गौण (फलम्) फल (पितृलोक-सत्यलोक-प्राप्तिः) पितृलोक और
सत्यलोक आदि उच्च लोकों की प्राप्ति भी होता है, (कर्मणा) वैदिक कर्मों के अनुष्ठान
के द्वारा (पितृलोकः) पितृलोक की प्राप्ति होती है और (विद्यया) उपासना के द्वारा (देवलोकः)
देवलोक की (इत्यादि श्रुतेः) इस प्रकार श्रुति प्रमाण हैं।
नित्य और नैमित्तिक लौकिक कर्म हैं और इनको करने
वाला शरीर त्याग कर पितृलोक (भुवर्लोक) में जाता है। उपासना एक आध्यात्मिक कर्म होने
के कारण श्रेष्ठ फल देती है और उसका साधक पितृलोक के ऊपर सत्यलोक में जाता है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
हरिः ॐ
Note:
The English commentary/translation is by Swami Nikhilanand (published by Advaita Ashrama).
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